"चौराहे पर खड़ा मन"
एक चौराहा...
जहाँ चार राहें थीं,
और मैं —
सवालों की गठरी लिए,
निर्णयों की थकान में लिपटा खड़ा था।
दाएँ रास्ते पर सपनों की भीड़ थी,
बाएँ पर अपनों की पुकार,
एक सीधा रास्ता था चुपचाप,
और एक मुड़ता था पीछे —
बीते कल की ओर,
जहाँ 'काश' की धूप थी और 'शायद' की छाँव।
मैं खड़ा रहा,
हर रास्ता मुझे खींचता रहा,
हर आवाज़ कहती रही — "इधर आओ",
पर मेरे भीतर की आवाज़...
शांत थी, अस्पष्ट, डरी हुई।
तभी एक बूढ़ी छाया पास आई,
उसकी आँखों में झील सी गहराई थी।
वो बोली —
"रास्ते बदलते रहते हैं, बेटा,
पर राह चुनना नहीं,
खुद को खो देना सबसे बड़ा पछतावा होता है।
जिसे चुनो, उसे पूरी तरह जियो,
वरना हर मोड़ पर फिर वही चौराहा मिलेगा।"
तब जाना —
फैसले सही या गलत नहीं होते,
उन्हें निभाने का साहस ही उन्हें अर्थ देता है।
केंद्रीय भाव (Central Idea):
"चौराहे पर खड़ा मन" कविता एक आंतरिक द्वंद्व और निर्णयों की दुविधा को दर्शाती है। जीवन में ऐसे कई मौके आते हैं जब हमें कोई राह चुननी होती है — और यही समय हमारे भविष्य की दिशा तय करता है। यह कविता हमें यह सिखाती है कि निर्णय लेने से अधिक महत्वपूर्ण है उस निर्णय के साथ खड़ा रहना, और जीवन को पूरी सच्चाई और साहस से जीना।
~Eoin Sushant
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