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गुनाहों का पुतला

गुनाहों का पुतला गुनाहों का पुतला हूँ मैं, ज़मीर से रूठा हूँ मैं। चेहरा हँसता, दिल रोता है, अपने ही खून से लथपथ हूँ मैं। झूठ की स्याही से लिखी कहानी, हर सच को मैंने जला डाला। कितनों के सपनों को तोड़ा, कितनों की किस्मत मिटा डाला। रिश्तों की लाशें कंधों पे ढोई, पाप की नदियों में रोज़ मैं रोई। आईना मुझसे सवाल करे जब, नज़रें झुका लूँ — इतनी शर्मिंदा होई। मैंने मासूम आँखों से रोशनी छीनी, मैंने ही सजाई कई कब्रें ज़मीं पर। फिर भी ये दिल चैन न पा सका, बस डूबा रहा अपने ही गुनाहों के समंदर। पर कहीं भीतर एक लौ जलती है, अंधेरों में उम्मीद पलती है। अगर आँसुओं से धुल जाए दिल, तो शायद रूह भी सँवरती है। एक दिन ये पुतला राख होगा, पर राख से नया इंसान होगा। सच्चाई की रोशनी में ढलकर, निर्दोष, उजला अरमान होगा। गुनाहों का पुतला हूँ मैं… पर शायद कल, इंसान बन जाऊँ मैं।                                   ~ Eoin Sushant